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Retro Review: बीस साल बाद: एक अंग्रेजी बाबू, गांव की सुंदर बाला और देसी भूत की कालजयी रहस्यगाथा

रेट्रो रिव्यू सीरीज के तहत इस बार हम 1962 की फिल्म बीस साल बाद पर नजर डालते हैं. एक हॉरर-सस्पेंस क्लासिक, जो उस साल की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बनी थी. गॉथिक शैली से प्रेरित यह रत्न डरावने रहस्य और सिहरन पैदा करने वाले संगीत का अनोखा संगम है, जो आज भी दर्शकों को बांधे रखता है.

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रेट्रो रिव्यू में पढ़ें कैसी है फिल्म बीस साल बाद
रेट्रो रिव्यू में पढ़ें कैसी है फिल्म बीस साल बाद

रेट्रो रिव्यू सीरीज के तहत इस बार हम 1962 की फिल्म बीस साल बाद पर नजर डालते हैं. एक हॉरर-सस्पेंस क्लासिक, जो उस साल की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बनी थी. गॉथिक शैली से प्रेरित यह रत्न डरावने रहस्य और सिहरन पैदा करने वाले संगीत का अनोखा संगम है, जो आज भी दर्शकों को बांधे रखता है.

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रेट्रो रिव्यू: बीस साल बाद (1962)

कलाकार: वहीदा रहमान, बिश्वजीत, मनमोहन कृष्णा, मदन पुरी, सज्जन
निर्देशक: बीरेन नाग
संगीत/गीत: हेमंत कुमार, शकील बदायूंनी
बॉक्स ऑफिस स्थिति: सुपरहिट
देखने के लिए उपलब्ध: यूट्यूब (4K वर्जन में)

क्यों देखें:
गंभीर और रहस्यमय गॉथिक हॉरर के लिए, अनोखी कैमरा तकनीक और हेमंत कुमार के दिल में उतर जाने वाले संगीत के लिए.

कहानी की सीख:
पुराने पाप अपनी परछाइयां बहुत दूर तक छोड़ते हैं, लेकिन बदला एक खोखली तलाश है.

रिव्यू

चांदनगर की एक धुंधली रोशनी वाली हवेली में कुमार (बिश्वजीत) आखिरी दीया बुझा देता है. कोहरे भरी रात में एक दर्द भरी चीख गूंजती है, फिर पायल की धीमी सी झनकार सुनाई देती है. कुमार जब एक चरमराते दरवाजे से बाहर झांकता है, तभी घड़ी साढ़े नौ बजने का संकेत देती है और एक कांच की चीज जोर से टूटती है.

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"वो औरत की आत्मा फिर लौटी है... एक और जागीरदार को ले जाने," हवेली का अकेला नौकर चेतावनी देता है- एक झुका हुआ बूढ़ा आदमी जो हमेशा पहेलियों में बात करता है.

फिल्म की खूबसूरती तब दिखती है जब कैमरा, कुमार के चेहरे की परछाई पर टिकता है और फिर झूमते झूमर की ओर घूमता है. जैसे ही आप सोचते हैं कि झूमर गिरने वाला है, सीन अचानक बदलकर एक दलदल में चला जाता है- जहां एक मजेदार कॉमिक सीन दिखाया जाता है.

ये उन कई चालाक मोड़ों में से एक है जो बीस साल बाद को एक डरावनी लेकिन दिलचस्प मर्डर मिस्ट्री बनाते हैं- जो छह दशक बाद भी उतनी ही असरदार लगती है. कहानी भले ही सीधी हो, लेकिन इसकी रहस्यमयी रोशनी, अनोखे कैमरा एंगल्स, डरावनी ध्वनि और रहस्यमयी किरदार इसे एक ऐसा गॉथिक शाहकार बना देते हैं जिससे नजरें हटाना मुश्किल है.

फिल्म के बीचों-बीच ये सारे तत्व एक साथ मिलकर एक ऐसा दृश्य रचते हैं जिसे भूलना मुश्किल है. जैसे ही घड़ी में फिर से साढ़े नौ बजते हैं- जो अब एक डराने वाला संकेत बन चुका है- झूमर झूलता है, हवेली की दीवारों पर एक साया सरकता है, और लता मंगेशकर की सिहरन भर देने वाली आवाज दलदल में गूंज उठती है.

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"ओ, ओ, ओ, ऊ… कहीं दीप जले कहीं दिल..." उनके सुर बांसुरी की धीमी लय और सपेरे की पुंगी की धुन में मिलकर जैसे हवा में घुल जाते हैं. एक औरत अपने बच्चे को सीने से लगाकर भागती है और घर के अंदर छिप जाती है. आग के पास बैठे गांव वाले डर से कांपने लगते हैं.

सूट और हैट पहने कुमार उस रहस्यमयी धुन का पीछा करता है, जो उसे दलदल की ओर खींचती है. कैमरा कभी दलदल की तरफ दौड़ता है, तो कभी पायल की झलक दिखाता है, सफेद चमड़े के बूट, जूतियां, बैसाखियां, और एक नकली आंख वाला आदमी दिखाता है. "क्या है तेरी किस्मत? चल, आकर जान ले...", लता की आवाज इस सस्पेंस में और रहस्य घोल देती है.

ये एक बेहतरीन मेल है- संगीत, रहस्य और कला का, जिसमें हर फ्रेम एक अमर चित्रकला की तरह लगता है. अगर इसे बरसाती आधी रात को देखें, तो यकीन मानिए, आप इस सीन को बार-बार देखना चाहेंगे.

कहानी

फिल्म की शुरुआत एक गांव की लड़की के बलात्कार और आत्महत्या से होती है. गांववालों का मानना है कि उसकी बदले की प्यास से भरी आत्मा हर जमींदार पुरुष को निशाना बनाती है, ताकि अपनी त्रासदी का बदला ले सके. कुमार, जमींदार खानदान का इकलौता जीवित वारिस, 20 साल बाद विदेश से चांदनगर लौटता है और इसी वजह से फिल्म का नाम बीस साल बाद रखा गया है. उसका मकसद है अपने तीन पूर्वजों की रहस्यमयी मौतों की जांच करना.

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चेतावनियों की परवाह किए बिना कुमार हर सुराग और डरावनी आवाज का पीछा करता है, जो उसे उस खतरनाक दलदल की ओर ले जाती हैं जहां हत्याएं हुई थीं. इसी बीच वह गांव के हकीम की बेटी राधा (वहीदा रहमान) से प्यार भी कर बैठता है.

रहस्य और गहराता है जब एक अजीब डॉक्टर अजीब समय पर बग्घी में आता है, एक आदमी नकली लाचारी दिखाता है, और एक और हत्या हो जाती है.
तो क्या ये वाकई कोई भूतिया हत्यारा है? या फिर कई किरदारों में से कोई अपनी छुपी मंशा के साथ खेल, खेल रहा है? क्या कुमार इस श्राप से बच पाएगा, या यही उसका मुकद्दर है? इसका जवाब फिल्म के बेहद रोमांचक क्लाइमेक्स में मिलता है.

ड्रैकुला और होम्स को सलाम

निर्देशक बीरेन नाग, जो पहले एक कला निर्देशक थे, इस कहानी को एक गॉथिक चित्रकला की तरह पेश करते हैं. हेमंत कुमार की सिहरन पैदा करने वाली धुनों के साथ मिलकर यह फिल्म एक शानदार कृति बन जाती है. फिल्म पर पश्चिमी हॉरर सिनेमा का असर साफ झलकता है. कोहरे से भरी रातों में घोड़ागाड़ी के दृश्य सीधे 1931 की ड्रैकुला फिल्म की याद दिलाते हैं, जिसमें छाया-प्रकाश का अद्भुत खेल और नाटकीय दृश्य थे.

दलदल का बार-बार आना, जानवरों की आवाजें- जैसे घोड़ों की हिनहिनाहट, बिल्लियों की म्याऊं और बछड़ों की घंटियों की टन-टन- ये सब शेरलॉक होम्स की क्लासिक कहानी द हाउंड ऑफ द बास्करविल्स से प्रेरणा लेते हैं.
बीस साल बाद ब्लैक एंड व्हाइट युग की हॉरर संस्कृति को अपना श्रद्धांजलि भेंट करती है.

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कुछ कमियां भी रहीं

अगर फिल्म की एडिटिंग थोड़ी चुस्त होती, तो प्रभाव और ज्यादा गहरा होता. रोमांटिक ट्रैक को थोड़ा कसकर दिखाना और असित सेन के भुलक्कड़ जासूस वाले किरदार (और उनकी खीझ दिलाने वाली गुनगुनाती आवाज) को हटा देना नाटक को और तेज बना सकता था. हालांकि क्लाइमेक्स दमदार है, पर थोड़ा असंभव-सा लगता है. फिर भी ये सब छोटी-मोटी बातें हैं.

संगीत फिल्म की जान है.

लता मंगेशकर का डर पैदा करने वाला गीत "कहीं दीप जले कहीं दिल", चुलबुला "सपने सुहाने लड़कपन के", और हेमंत कुमार की अमर आवाज में "जरा नजरों से कह दो जी" और "बेकरार करके हमें यूं न जाइए"- ये सब गाने फिल्म की किसी भी कमी को पूरी तरह भर देते हैं. 

"कहीं दीप जले..." फिल्म में दो बार आता है- एक बोनस की तरह, जो इस साउंडट्रैक को भारतीय सिनेमा के सबसे बेहतरीन म्यूजिकल एल्बम्स में जगह दिलाता है. आखिरकार, बीस साल बाद रहस्य से भरे दृश्य, अनसुलझे किरदार, गलत सुराग, और डरावने झटकों का ऐसा रोमांचक मेल प्रस्तुत करती है कि 60 साल बाद भी यह एक गॉथिक क्लासिक के रूप में पूरी तरह मनोरंजन देती है.

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